आचार्य श्रीराम शर्मा >> युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 1 एवं 2 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 1 एवं 2श्रीराम शर्मा आचार्य
|
2 पाठकों को प्रिय 202 पाठक हैं |
युग की माँग प्रतिभा परिष्कार (दो भागों में )
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भगवत् सत्ता का निकटतम और सुनिश्चित स्थान एक ही है, अंतराल में विद्यमान प्राणग्नि उसी को जानने उभारने से वह सब कुछ मिल सकता है, जिसे धारण करने की वसता मनुष्य के पास है। प्राणवान् प्रतिभासम्पन्नों में उस प्राणग्नि का अनुपात सामान्यों से अधिक होता है। उसी को आत्मबल-संकल्पबल भी कहा गया है।
पारस को छूकर लोहा सोना बनता भी है या नहीं ? इसमें किसी को संदेह हो सकता है, पर यह सुनिश्चित है कि महाप्रतापी आत्मबलसम्बन्न व्यक्ति असंख्यों को अपना अनुयायी-सहयोगी बना लेते हैं। इन्हीं प्रतिभावानों ने सदा से जमाने को बदला है-परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाई है। प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह तो अंदर से जागती है। सर्वणों को छोड़कर यह कबीर और रैदास को भी वरण कर सकती है। बलवानों, सुंदरों को छोड़कर गाँधी जैसे कमजोर शरीर वाले व चाणक्य जैसे कुरूपों का वरण कर सकती है। जिस किसी में वह जाग जाती है, साहसिकता और सुव्यवस्था के दो गुणों में जिस किसी को भी अभ्यस्त-अनुशासित कर लिया जाता है, सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल जाता है। प्रतिभा परिष्कार-तेजस्विता का निखार आज की अपरिहार्य आवश्यकता है एवं इसी आधार पर नवयुग की आधारशिला रखी जाएगी।
बड़े कामों को बड़े शक्तिकेन्द्र ही सम्पन्न कर सकते हैं। दलदल में फँसे हाथी को बलवान हाथी ही खींचकर पार करा पाते हैं। पटरी से उतरे इंजन को समर्थ क्रेन ही उठाकर यथास्थान रखती है। उफनते समुद्र में नाव खेना साहसी नाविकों से ही बन पड़ता हैं। आज के समाज व संसार की बड़ी समस्याओ को हल करने के लिए स्त्रस्टा को भी वरिष्ट स्तर की परिष्कृत प्रतिभाओं की आवश्यकता पड़ती है प्रतिभाएँ ऐसी संपदाएँ हैं जिनसे न केवल स्वयं भरपूर श्रेय अर्जित करते हैं, वरन् अपने क्षेत्र-समुदाय और देश के अति विकट दीखने वाली उलझनों को भी सुलझाने में वे सफल होते हैं। इसी कारण इन्हें देवदूत-देवमानव-महापुरुष कहा जाता है।
पारस को छूकर लोहा सोना बनता भी है या नहीं ? इसमें किसी को संदेह हो सकता है, पर यह सुनिश्चित है कि महाप्रतापी आत्मबलसम्बन्न व्यक्ति असंख्यों को अपना अनुयायी-सहयोगी बना लेते हैं। इन्हीं प्रतिभावानों ने सदा से जमाने को बदला है-परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाई है। प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह तो अंदर से जागती है। सर्वणों को छोड़कर यह कबीर और रैदास को भी वरण कर सकती है। बलवानों, सुंदरों को छोड़कर गाँधी जैसे कमजोर शरीर वाले व चाणक्य जैसे कुरूपों का वरण कर सकती है। जिस किसी में वह जाग जाती है, साहसिकता और सुव्यवस्था के दो गुणों में जिस किसी को भी अभ्यस्त-अनुशासित कर लिया जाता है, सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल जाता है। प्रतिभा परिष्कार-तेजस्विता का निखार आज की अपरिहार्य आवश्यकता है एवं इसी आधार पर नवयुग की आधारशिला रखी जाएगी।
बड़े कामों को बड़े शक्तिकेन्द्र ही सम्पन्न कर सकते हैं। दलदल में फँसे हाथी को बलवान हाथी ही खींचकर पार करा पाते हैं। पटरी से उतरे इंजन को समर्थ क्रेन ही उठाकर यथास्थान रखती है। उफनते समुद्र में नाव खेना साहसी नाविकों से ही बन पड़ता हैं। आज के समाज व संसार की बड़ी समस्याओ को हल करने के लिए स्त्रस्टा को भी वरिष्ट स्तर की परिष्कृत प्रतिभाओं की आवश्यकता पड़ती है प्रतिभाएँ ऐसी संपदाएँ हैं जिनसे न केवल स्वयं भरपूर श्रेय अर्जित करते हैं, वरन् अपने क्षेत्र-समुदाय और देश के अति विकट दीखने वाली उलझनों को भी सुलझाने में वे सफल होते हैं। इसी कारण इन्हें देवदूत-देवमानव-महापुरुष कहा जाता है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book